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श्री श्री रवि शंकर : एक जीवनी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हर शब्द अपनी ताक़त, अपनी ऊर्जा, अपनी गर्माहट, अपना वेग लेकर आता है।
बड़ा वह, जो उसका प्रतिमान, उसकी गर्माहट, उसकी अर्थवत्ता का पैमाना अपने
मुताबिक़ गढ़े और शब्द उसका अनुसरण करें। जो रोज़ शब्दों के थर्मामीटर
फोड़े और जिससे शब्द घिघियाएँ कि हमारा इस्तेमाल कर लो। जो भाषा की बोलती
बंद कर दे और शब्दों की दुकानदारी की दिशा बदल दे, ऐसे लोग
सदियों-सहस्त्राब्दियों में पैदा होते हैं। श्री श्री उन्हीं कालजयी लोगों
में से हैं। यह कहते हुए मैं उन्हें कहीं से भी सुपरह्यूमन नहीं मानता,
क्योंकि जिसे पूरे समाज की बेहतरी की चिंता हो, वह औसत ही हो सकता है। यह
दीगर है कि उनकी चिंताएँ उन्हें सुपर बनाती हैं।
मेरी क्या बिसात कि मैं श्री श्री रवि शंकर पर लिखूँ। यहाँ लिखा तो उनके जीवन का पहलूभर है। संवाद स्थापित करने का प्रयास मात्र। महत्वपूर्ण यह भी है कि मन कैसे बना ? अगर मैं आर्ट ऑफ़ लिविंग के रजत जयंती उत्सव में नहीं जाता, तो इस लेखन का विचार मन में क़तई नहीं आता। दरअसल हुआ यूँ कि जनवरी, 2006 में आर्ट ऑफ़ लिविंग की रेणु बोर्दिया हमारे तत्कालीन कार्यकारी संपादक (दैनिक भास्कर, उदयपुर) श्री शिव कुमार विवेक से मिलने आईं। वे महीने भर बाद यानी फ़रवरी में आर्ट ऑफ़ लिविंग की रजत जयंती में शामिल होने का न्योता देने आई थीं। विवेकजी ने कार्ड मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने पढ़ा तो लगा कि वहाँ जाना चाहिए। रेणुजी से मैंने इस कार्यक्रम में शामिल होने की इच्छा जताई। मित्र मनोज बिनवाल के सुझाव पर मैंने दैनिक भास्कर, राजस्थान के तत्कालीन स्टेट हेड श्री एनके सिंह से रजत जयंती समारोह की रिपोर्टिंग के लिए बेंगलूर जाने की अनुमति माँगी। उन्होंने मंजूरी तो दे दी, लेकिन इस सवाल के साथ कि आपके जाने से विवेकजी को कोई परेशानी तो नहीं होगी ? मेरे इंकार करने पर उन्होंने अनुमति के साथ ही निर्देश दिया कि आप कवरेज करें, खबर सारे संस्करणों में छपेगी। बदक़िस्मती देखिए, जाने के पहले मेरे पैर में घाव हो गया। दो-दो ऑपरेशन कराए। महँगी और प्रभावी एंटीबायोटिक्स लेता रहा, पर कोई फ़ायदा नहीं। कमर में दर्द था, सो अलग। लगता था कि बेंगलूर जाना नहीं हो पाएगा। डर के कारण मैं स्टेट हेड से कह नहीं पाता था कि पैर में घाव हो गया है। रेणुजी हमेशा ढाढ़स बँधातीं और कहतीं कि सब ठीक हो जाएगा। आपका संकल्प मज़बूत है, आप बेंगलूर ज़रूर चलेंगे।
एक दिन ऐसा भी आया जब मैंने हिम्मत जुटाकर अपने दो साथियों–माधवेंद्र और अनुज–को डेरे पर बुलाया। मैंने उनसे घाव की पूरी निर्ममता से सफ़ाई करने को कहा। उन्होंने घाव की दो घंटे तक सफ़ाई की। दबा-दबाकर सारा मवाद निकाला। यह प्रक्रिया तब तक चलती रही जब तक कि घाव से साफ़ ख़ून नहीं आने लगा। उस दिन पैर मैं हल्कापन महसूस हुआ। धीरे-धीरे दर्द ख़त्म हो गया। यह बेंगलूर जाने के चार दिन पहले का वाकया है। इधर, ट्रेन में बेंगलूर के लिए वेटिंग में भी टिकट नहीं मिल रहा था। मेरे मित्र विनोद कुमार श्रीवास्तव रेल मंत्रालय में हैं, वे भी उस समय उपलब्ध नहीं थे। कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। प्लेन में भी वही स्थिति थी। संयोग से उदयपुर से आर्ट ऑफ़ लिविंग की टीम बेंगलूर जा रही थी। बस, जैसे भगवान भी मुझे बेंगलूर भेजना चाह रहे थे, मेरी व्यवस्था हो गई। मुझे विदा करने मेरे सहयोगी राजेश वैष्णव आए। वे अचरज से बोले, ‘आप कैसे जाएँगे ? पैर में घाव है। कमर दर्द भी है। रास्ते में बस कुदाएगी। ऐसे में कमर दर्द और बढ़ेगा। ढाई हज़ार किलोमीटर का सफ़र कैसे करेंगे ?’ ख़ैर, मुझे तो जाना था। रेणुजी साथ में थीं। वे बोली घबराइए नहीं, कोई परेशानी होगी, तो साथ में डॉक्टर भी हैं। इस तरह मैंने बेंगलूर कूच किया।
गुजरात, महाराष्ट्र होते हुए बस कर्नाटक की सीमा में पहुँची। आर्ट ऑफ़ लिविंग की रजत जयंती के होर्डिंग-बैनर नज़र आने लगे। उस वक़्त हम बेंगलूर से करीब 400 किलोमीटर दूर थे। 13 साल के पत्रकारिता जीवन में बड़ी-बड़ी राजनीतिक रैलियाँ मैंने देखी थीं। नक्सलबाड़ी का बसंत बज्रनाद और बिहार में जयप्रकाश नारायण के विधानसभा मार्च के बारे में बड़े-बुज़ुर्गों से सुनकर भीड़ का तसव्वुर भी मैंने किया था। लंबे समय तक यही मेरे मन पर छाया रहा, लेकिन बेंगलूर में जुटे जनसैलाब ने मेरे इस मुग़ालते को दूर कर दिया। आस्था का ऐसा समंदर, ऐसा माहौल मैंने पहले न कभी देखा था और न ही सुना था। इस समारोह ने मुझे गहराई तक प्रभावित किया। ऐसा कहें कि हिलाकर रख दिया। दुनिया के कोने-कोने से आए क़रीब 25 लाख लोग चार दिनों तक वहाँ डटे रहे। लौटते में फ़ोन से पता चला कि मेरी पत्नी का पैर टूट गया है। मेरी दीदी स्वयंप्रभा का फ़ोन आया, ‘भाड़ में जाए तुम्हारी पत्रकारिता। पत्नी का पैर टूटा है, तुम कहाँ हो, क्या कर रहे हो ?’ मैंने उन्हें समझाया, ‘जो होना था, सो तो हो गया। परेशान होने से कुछ होने वाला नहीं है। मेरे मित्र और कार्यालय के सहयोगी वहाँ उसकी देखभाल कर रहे हैं। मैं पहुँचूँगा, तो बताऊँगा क्या हाल है ?’ गुस्से में वे बोलीं, ‘दर्शन से जीवन नहीं चलता।’ यह बोलकर उन्होंने फ़ोन काट दिया। फिर अम्मा का फ़ोन आया, ‘ये क्या हो रहा है ? भगवान हमारे साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं ?’ मैंने उन्हें भी समझाया कि जिस तरह से दुर्घटना हुई, भीड़भाड़ वाला इलाक़ा था, मोटरसाइकिल से गिरी थी, पीछे से कोई गाड़ी चढ़ गई होती, तो क्या होता ? बच गई, यही बहुत है। सब ठीक हो जाएगा। उदयपुर पहुँचने पर मेरी पत्नी पूनम ने बताया कि साथ में बेटी भी थी, लेकिन शुक्र है उसे कुछ नहीं हुआ। मैंने मन ही मन सोचा कि कोई बड़ा ग्रह था, जो टल गया।
बेंगलूर से उदयपुर लौटते समय बस ज्योतिर्लिंग भीमाशंकर के पास रुकी। मैं दर्शन कर बाहर आ रहा था, तो रेणुजी ने पूछा, ‘कार्यक्रम कैसा लगा ?’ मैंने कहा, ‘अद्भुत। मैं बेंगलूर नहीं जाता, तो जीवन भर अफ़सोस रहता।’ लौटने के बाद मेरा मन बड़ा बेचैन था कि किसी न किसी तरह यह बात लोगों तक पहुँचाऊँ कि श्री श्री क्या हैं ? आर्ट ऑफ़ लिविंग क्या है ? मैंने रेणुजी से अपने मन की बात कही और बताया कि मैं श्री श्री के बारे में हिंदी में कुछ लिखना चाहता हूँ। बताना चाहता हूँ कि दुनिया में बड़े पैमाने पर बदलाव की बयार बह रही है, दिव्य समाज निर्माण का अभियान विश्व स्तर पर चल रहा है, तभी तो हर उम्र, वर्ग के लोग इस उत्सव में शामिल हुए। उन्होंने कहा, ‘बहुत बढ़िया। मैं आश्रम में बात करूँगी।’ रेणुजी ने दिल्ली विश्वविद्यालय में अँग्रेजी के प्रोफ़ेसर संजीव कक्कड़ से बात की। उन्होंने बिंदिया जैन का नंबर देकर उनसे बात करने को कहा। इस तरह श्री श्री से ऋषिकेश में मिलना तय हुआ। श्री श्री से मुलाक़ात का समय नज़दीक आते-आते मुझे बुखार ने आ घेरा। मैं थका-माँदा और लगभग बुखार में ही ऋषिकेश पहुँचा। वहाँ श्री श्री से मेरी मुलाक़ात हुई। उनसे मेरी यह पहली मुलाक़ात थी लेकिन लगा जैसे कुछ ठहर सा गया है और उससे भी ज़्यादा ऐसा कुछ है, जो मैं भूल गया हूँ। मैंने उनसे कहा, ‘मैं आप पर लिखना चाहता हूँ, जीकर और अनुभव करके।’ उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ‘तो लिखो।’ मैंने कहा, ‘लेकिन इसके लिए मुझे नौकरी छोड़नी होगी’ जवाब मिला, ‘नौकरी क्यों छोड़ोगे, नौकरी में रहते हुए लिखो।’ मैंने पूछा, ‘लेकिन छह महीने या साल भर की लंबी छुट्टी एक पत्रकार को कौन संस्थान देगा ?’ श्री श्री मंद-मंद मुस्कराते रहे। फिर बोले, ‘सब हो जाएगा।’ मैं चुप हो गया। अब विदा लेने की बारी थी। मैंने उनसे आशीर्वाद की प्रार्थना की। उन्होंने अपना हाथ मेरे सिर पर रख दिया। मेरी आँखें बंद हो गईं। फिर उन्होंने प्रसाद दिया। श्री श्री ने बिंदिया जैन से कहा, ‘इसे प्रसन्न प्रभु का नंबर दे दो। जो भी ज़रूरतें हों, वे मदद करें।’
ऋषिकेश में शीशे की तरह बहती पवित्र गंगा किनारे स्थित उस कुटीर से बाहर निकला। मेरे सिर के बाईं ओर सनसनाहट-सी होने लगी, एकदम ठंडापन महसूस हुआ। मुझे लगा कि ठंड या अलसुबह गंगा में नहाने की वजह से ऐसा हुआ होगा। यह सनसनाहट दिल्ली तक मेरे साथ-साथ आई। ऋषिकेश से बस से दिल्ली पहुँचकर मैंने अन्नाजी को फ़ोन मिलाया। वे युवा संन्यासी हैं, जो डॉक्टरी छोड़ एकांत साधना करते हैं। उन्होंने कहा कि यह सनसनाहट पॉवर ट्राँसमिशन है। इसे शक्तिपात भी कहते हैं। यह सनसनाहट और ठंड उदयपुर तक मेरा पीछा करती रही। रास्ते में ही स्टेट हेड का मोबाइल आया, आते ही मुझसे जयपुर में मिलें।’ मुझे लगा, जरूर बेंगलूर की रिपोर्टिंग में कोई गड़बड़ी हुई होगी, मैं चिंता में पड़ गया। ख़ैर, उदयपुर होते हुए जयपुर पहुँचा। वहाँ स्टेट हेड ने कहा, ‘आपकी पदोन्नति की जा रही है। आप भीलवाड़ा, दैनिक भास्कर सँभालें।’ मैंने उन्हें बताया कि पत्नी का पैर टूटा है, अभी नहीं जा सकता। वे बोले, ‘ठीक है, मार्च में चले जाइएगा।’ इस तरह मैं उदयपुर से भीलवाड़ा चला गया। वहाँ जाकर मैंने मई में स्टेट हेड को जयपुर फिर पत्र लिखा कि श्री श्री रवि शंकर पर शोध पर पुस्तक लिखना चाहता हूँ। मुझे अवकाश दिया जाए। उन्होंने कहा, ‘पूरा प्रोजेक्ट बनाकर भेजें।’ मैंने उन्हें प्रोजेक्ट बनाकर भेजा। मैं समझ सकता था। पत्रकारिता में जहाँ हफ़्ते भर की छुट्टी में परेशानी होती है, यह मुमकिन नहीं था कि कोई किताब लिखने के लिए लंबी छुट्टी दे। ख़ैर, मैं अपने फ़ैसले पर अडिग था। चाहे जो हो, यह शोध तो मैं करूँगा ही, पुस्तक लिखकर ही रहूँगा। सभी मित्र-शुभचिंतक परेशान थे कि कैसे काम चलेगा ? मैंने पत्नी से कहा, ‘तुम किसी तरह साल भर मायके में रहो।’ वह तैयार हो गई, पर मुझे लेकर चिंतित थी, ‘बग़ैर पैसे के आप कैसे यात्रा करेंगे ? कहाँ ठहरेंगे ? क्या खाएँगे ?’ हारकर एक दिन मेरे मुँह से निकल गया, ‘भीख माँगूँगा, पर लिखूँगा ज़रूर।’ यह सुनकर मेरी अबोध बेटी मज़ाक़ में मुझसे पूछती थी, ‘पापा, आप भीख कैसे माँगेंगे ?’
इसी बीच जयपुर कार्यालय से मेरी जगह राजेश रवि आ गए। उन्हें मैं कार्यभार सौंपने की तैयारी करने लगा। तभी जयपुर कार्यालय से श्याम शर्मा का फ़ोन आया, ‘अहा ज़िंदगी का वैकल्पिक ज्योतिष विषय पर अंक निकलने जा रहा है। भीलवाड़ा के पास कारोई में भृगु संहिता है। वहाँ चले जाएँ और स्टोरी कर दें।’ मैं गया। पंडितजी से बातचीत के अंत में मैंने पूछा, ‘ज़रा मेरे बारे में कुछ बताइए।’ वे बताने लगे। उनके इस ख़ुलासे से मेरे कान खड़े हो गए कि अगले साल आप एक किताब लिखेंगे। मैं अचरज में पड़ गया कि ये कैसे जानते हैं। दैनिक भास्कर के उच्च प्रबंधन, मेरे कुछ मित्रों-रिश्तेदारों के अलावा किसी को दूर-दूर तक इसकी कानोकान ख़बर नहीं थी। इन्हें कैसे पता ? मैंने उनसे पूछा कि एक बार फिर देखकर बताएँ। वृद्ध पंडितजी ने कहा, ‘भृगु संहिता में यही लिखा है।’ जब मैंने स्टोरी भेजी, तो अहा ज़िंदगी के प्रधान सम्पादक श्री यशवन्त व्यास को लगा कि मैं कुछ बढ़ा-चढ़ाकर लिख गया हूँ। श्यामजी का फ़ोन आया, ‘व्यासजी स्वयं कारोई जाना चाहते हैं। आप पंडितजी से समय ले लें। मैं भी साथ में रहूँगा।’ नियत समय पर हम तीनों कारोई गए। बाद में वह लेख अहा ज़िंदगी के अगस्त, 2006 के अंक में छपा। कारोई से लौटते समय श्यामजी और व्यासजी गाड़ी में चर्चा कर रहे थे कि किताब लिखने की बात आख़िर भृगु संहिता में कैसे है। मैंने उन्हें बताया कि इसके पहले तमिलनाडु के तँजौर जिले के बैदईश्वरन कोईल निवासी महाशिव सूक्ष्म नाड़ी ज्योतिषी श्रीअरुलमुत्तू कुमारस्वामी ने भी ताड़पत्र देखकर कहा था कि आप एक पुस्तक लिखेंगे। वह काफ़ी चर्चित होगी। मुझे उनसे बिहार कांग्रेस के नेता अनिल शर्मा ने मिलवाया था। मैंने उन्हें वह कैसेट भी सुनवाया, जिसमें पुस्तक लेखन का विषय तक निर्धारित था।
मैंने आश्रम के प्रसन्न प्रभु को ई-मेल भेजकर बताया कि मेरा क्या होगा ? मैं एक अगस्त से शोध-अध्ययन के लिए आश्रम आ रहा हूँ। उनका जवाब आया, ‘जो गुरूजी ने कहा है, वही होगा। आप निश्चिंत रहें।’ मैं दुविधा में पड़ गया। भारी ऊहापोह के दिन थे। एक सुबह मैं काफ़ी तनाव में था। तभी दैनिक भास्कर, उदयपुर के कार्यकारी संपादक श्री कीर्ति राणा का फ़ोन आया, ‘बंधुवर, क्यों परेशान हैं ?’ मुझे अचरज हुआ कि इन्हें मेरी परेशानी कैसे पता ? उन्होंने कहा, ‘अभी मैं ध्यान से उठा तो मुझे लगा आप काफ़ी परेशान हैं। जब जा ही रहे हैं, तो मैनेजिंग डायरेक्टर श्री सुधीर अग्रवाल को एक धन्यवाद पत्र भेज दें।’ मैंने उनकी बात मान ली, लेकिन असमंजस में उस दिन धन्यवाद पत्र नहीं भेज सका। हरिवंशजी (प्रधान संपादक, प्रभात ख़बर), मैनेजर साहब विजय बाबू, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक डॉ. बीरेंद्र नारायण यादव ने कहा कि आप काम करें, हम आपके साथ हैं, मिथिलेश भैया ने तो यहाँ तक कहा कि परिवार को मेरे पास छोड़ जाओ। पप्पू भैया ने कहा कि राँची छोड़ जाओ। इन सबसे मुझे नैतिक साहस मिला और संबल भी। जुलाई 2006 के अंतिम सप्ताह में मैंने एमडी श्री सुधीर अग्रवाल को धन्यवाद पत्र लिखा। उसका मजमून कुछ इस तरह था–आपके साथ काम करके मैंने बहुत कुछ सीखा। इसके लिए धन्यवाद। मैं श्री श्री रवि शंकर पर शोध–अध्यनार्थ एक अगस्त से छुट्टी चाहता हूँ। मैं यह चिट्ठी ई-मेल करके घर आया। कुछ समय बाद मुझसे पूरी परियोजना की जानकारी एमडी सचिवालय मुंबई से अनिल गुप्ता ने माँगी।
भाई बलदेवजी के साथ राजसमंद के हनुमान बाबा और श्रीनाथजी का दर्शन किया। लगे हाथ मैंने अजमेर शरीफ़ की ज़ियारत का भी मन बना लिया। मन में संशय था कि पता नहीं अब राजस्थान फिर आना हो भी या नहीं। उर्स का महीना था। भारी भीड़। ग़रीब नवाज़ की चौखट पर मत्था टेककर सीढ़ी से उतर ही रहा था कि एमडी सचिवालय भोपाल से ऐश्वर्या अय्यर व आशीष ममगाई ने सूचना दी कि आपका प्रोजेक्ट मंजूर कर लिया गया है। अगले दिन ऑफ़िस जाकर ई-मेल खोला। मुझे संसाधनों सहित सवैतनिक छुट्टी मिल गई थी। सावन पूर्णिमा के दिन एमडी सुधीर अग्रवाल से भोपाल में मिला। उन्होंने शोध-अध्ययन व लेखन संबंधी दिशा-निर्देश दिए और बहुमूल्य सुझाव भी।
पहली बार मुझे लगा कि दूसरे अख़बारों और दैनिक भास्कर में क्या फ़र्क़ है। यह भी कि भारत में सबसे तेज़ी से उसके बढ़ने की वस्तुगत स्थितियाँ क्या हैं। क्यों उसका परचम लहरा रहा है और क्यों कुंडली जमाए बरगद एक-एक कर उसके आगे धराशायी हो रहे हैं। ई-मेल से भेजे मामूली से धन्यवाद पत्र को इतने बड़े प्रकाशन समूह का मालिक कैसे ताड़ गया ? कैसे उसे लगा कि इस जलतरंग को भीतर-बाहर, हर ओर बजना चाहिए ? बड़प्पन इसे कहते हैं। उदारता व महानता के लिए मैं दैनिक भास्कर प्रबंधन का कोटिशः कृतज्ञ हूँ। ख़ासकर भास्कर समूह के मैनेजिंग डायरेक्टर श्री सुधीर अग्रवाल का, क्योंकि उनमें समाज के प्रति पत्रकारिता के उत्तरदायित्व की दूरदृष्टि है। संभवतः भारत की पत्रकारिता का यह अपनी तरह का इकलौता प्रोजेक्ट है। आज बाज़ारीकरण के दौर में हर चीज़ परिणामोन्मुखी व लाभ आधारित उत्पाद के तौर पर देखी जा रही है। कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता है। ऐसे में कोई अख़बार अपने संपादकीय प्रभारी को किसी ऐसे शोध-लेखन के लिए संसाधनों सहित सवैतनिक छुट्टी दे, जिससे संस्थान का दूर-दूर तक कोई हित जुड़ा नहीं हो, ऐसी मिसाल बिरले ही मिलती है। यह उपकार तब और भी क़ाबिलेतारीफ़ हो जाता है, जब संस्थान ऐसे व्यक्ति की मदद करे जो उस काम के लिए नौसिखुलआ-अनुभवहीन हो।
दैनिक भास्कर के समूह संपादक श्री श्रवण गर्ग ने भी मुझे शुभकामनाएँ दीं। कई पत्रकार मित्र यह जानकर हैरान थे कि मैं सवैतनिक अवकाश पर हूँ। कई ने कहा कि भास्कर का यह निर्णय ऐतिहासिक है। मेरे कई साथी कहते, ‘आख़िर श्री श्री ने क्या जादू कर दिया कि दीवाने बन गए हो ?’ मुझे जो कुछ मिला, उसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता। कुछ को शक था कि इसके लिए का़फी रुपए मिले होंगे आर्ट ऑफ़ लिविंग से। हो भी क्यों नहीं। मुझे अच्छी तरह याद है, मैं पटना में एक प्रवचनकर्ता बाबा का साक्षात्कार लेने गया था। वे नियमित रूप से टीवी पर दिखते हैं। देश दुनिया में उनके नाम का डंका बजता है। मुझे सामने पाकर उन्होंने यह कहते हुए अफ़सोस जताया कि अरे हमने तो आपके नाम पर दूसरे सज्जन को सोने-चाँदी के उपहार दे दिए। फिर उन्होंने नोटों की गड्डियाँ मेरे सामने रख दी थीं।
मेरी क्या बिसात कि मैं श्री श्री रवि शंकर पर लिखूँ। यहाँ लिखा तो उनके जीवन का पहलूभर है। संवाद स्थापित करने का प्रयास मात्र। महत्वपूर्ण यह भी है कि मन कैसे बना ? अगर मैं आर्ट ऑफ़ लिविंग के रजत जयंती उत्सव में नहीं जाता, तो इस लेखन का विचार मन में क़तई नहीं आता। दरअसल हुआ यूँ कि जनवरी, 2006 में आर्ट ऑफ़ लिविंग की रेणु बोर्दिया हमारे तत्कालीन कार्यकारी संपादक (दैनिक भास्कर, उदयपुर) श्री शिव कुमार विवेक से मिलने आईं। वे महीने भर बाद यानी फ़रवरी में आर्ट ऑफ़ लिविंग की रजत जयंती में शामिल होने का न्योता देने आई थीं। विवेकजी ने कार्ड मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने पढ़ा तो लगा कि वहाँ जाना चाहिए। रेणुजी से मैंने इस कार्यक्रम में शामिल होने की इच्छा जताई। मित्र मनोज बिनवाल के सुझाव पर मैंने दैनिक भास्कर, राजस्थान के तत्कालीन स्टेट हेड श्री एनके सिंह से रजत जयंती समारोह की रिपोर्टिंग के लिए बेंगलूर जाने की अनुमति माँगी। उन्होंने मंजूरी तो दे दी, लेकिन इस सवाल के साथ कि आपके जाने से विवेकजी को कोई परेशानी तो नहीं होगी ? मेरे इंकार करने पर उन्होंने अनुमति के साथ ही निर्देश दिया कि आप कवरेज करें, खबर सारे संस्करणों में छपेगी। बदक़िस्मती देखिए, जाने के पहले मेरे पैर में घाव हो गया। दो-दो ऑपरेशन कराए। महँगी और प्रभावी एंटीबायोटिक्स लेता रहा, पर कोई फ़ायदा नहीं। कमर में दर्द था, सो अलग। लगता था कि बेंगलूर जाना नहीं हो पाएगा। डर के कारण मैं स्टेट हेड से कह नहीं पाता था कि पैर में घाव हो गया है। रेणुजी हमेशा ढाढ़स बँधातीं और कहतीं कि सब ठीक हो जाएगा। आपका संकल्प मज़बूत है, आप बेंगलूर ज़रूर चलेंगे।
एक दिन ऐसा भी आया जब मैंने हिम्मत जुटाकर अपने दो साथियों–माधवेंद्र और अनुज–को डेरे पर बुलाया। मैंने उनसे घाव की पूरी निर्ममता से सफ़ाई करने को कहा। उन्होंने घाव की दो घंटे तक सफ़ाई की। दबा-दबाकर सारा मवाद निकाला। यह प्रक्रिया तब तक चलती रही जब तक कि घाव से साफ़ ख़ून नहीं आने लगा। उस दिन पैर मैं हल्कापन महसूस हुआ। धीरे-धीरे दर्द ख़त्म हो गया। यह बेंगलूर जाने के चार दिन पहले का वाकया है। इधर, ट्रेन में बेंगलूर के लिए वेटिंग में भी टिकट नहीं मिल रहा था। मेरे मित्र विनोद कुमार श्रीवास्तव रेल मंत्रालय में हैं, वे भी उस समय उपलब्ध नहीं थे। कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। प्लेन में भी वही स्थिति थी। संयोग से उदयपुर से आर्ट ऑफ़ लिविंग की टीम बेंगलूर जा रही थी। बस, जैसे भगवान भी मुझे बेंगलूर भेजना चाह रहे थे, मेरी व्यवस्था हो गई। मुझे विदा करने मेरे सहयोगी राजेश वैष्णव आए। वे अचरज से बोले, ‘आप कैसे जाएँगे ? पैर में घाव है। कमर दर्द भी है। रास्ते में बस कुदाएगी। ऐसे में कमर दर्द और बढ़ेगा। ढाई हज़ार किलोमीटर का सफ़र कैसे करेंगे ?’ ख़ैर, मुझे तो जाना था। रेणुजी साथ में थीं। वे बोली घबराइए नहीं, कोई परेशानी होगी, तो साथ में डॉक्टर भी हैं। इस तरह मैंने बेंगलूर कूच किया।
गुजरात, महाराष्ट्र होते हुए बस कर्नाटक की सीमा में पहुँची। आर्ट ऑफ़ लिविंग की रजत जयंती के होर्डिंग-बैनर नज़र आने लगे। उस वक़्त हम बेंगलूर से करीब 400 किलोमीटर दूर थे। 13 साल के पत्रकारिता जीवन में बड़ी-बड़ी राजनीतिक रैलियाँ मैंने देखी थीं। नक्सलबाड़ी का बसंत बज्रनाद और बिहार में जयप्रकाश नारायण के विधानसभा मार्च के बारे में बड़े-बुज़ुर्गों से सुनकर भीड़ का तसव्वुर भी मैंने किया था। लंबे समय तक यही मेरे मन पर छाया रहा, लेकिन बेंगलूर में जुटे जनसैलाब ने मेरे इस मुग़ालते को दूर कर दिया। आस्था का ऐसा समंदर, ऐसा माहौल मैंने पहले न कभी देखा था और न ही सुना था। इस समारोह ने मुझे गहराई तक प्रभावित किया। ऐसा कहें कि हिलाकर रख दिया। दुनिया के कोने-कोने से आए क़रीब 25 लाख लोग चार दिनों तक वहाँ डटे रहे। लौटते में फ़ोन से पता चला कि मेरी पत्नी का पैर टूट गया है। मेरी दीदी स्वयंप्रभा का फ़ोन आया, ‘भाड़ में जाए तुम्हारी पत्रकारिता। पत्नी का पैर टूटा है, तुम कहाँ हो, क्या कर रहे हो ?’ मैंने उन्हें समझाया, ‘जो होना था, सो तो हो गया। परेशान होने से कुछ होने वाला नहीं है। मेरे मित्र और कार्यालय के सहयोगी वहाँ उसकी देखभाल कर रहे हैं। मैं पहुँचूँगा, तो बताऊँगा क्या हाल है ?’ गुस्से में वे बोलीं, ‘दर्शन से जीवन नहीं चलता।’ यह बोलकर उन्होंने फ़ोन काट दिया। फिर अम्मा का फ़ोन आया, ‘ये क्या हो रहा है ? भगवान हमारे साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं ?’ मैंने उन्हें भी समझाया कि जिस तरह से दुर्घटना हुई, भीड़भाड़ वाला इलाक़ा था, मोटरसाइकिल से गिरी थी, पीछे से कोई गाड़ी चढ़ गई होती, तो क्या होता ? बच गई, यही बहुत है। सब ठीक हो जाएगा। उदयपुर पहुँचने पर मेरी पत्नी पूनम ने बताया कि साथ में बेटी भी थी, लेकिन शुक्र है उसे कुछ नहीं हुआ। मैंने मन ही मन सोचा कि कोई बड़ा ग्रह था, जो टल गया।
बेंगलूर से उदयपुर लौटते समय बस ज्योतिर्लिंग भीमाशंकर के पास रुकी। मैं दर्शन कर बाहर आ रहा था, तो रेणुजी ने पूछा, ‘कार्यक्रम कैसा लगा ?’ मैंने कहा, ‘अद्भुत। मैं बेंगलूर नहीं जाता, तो जीवन भर अफ़सोस रहता।’ लौटने के बाद मेरा मन बड़ा बेचैन था कि किसी न किसी तरह यह बात लोगों तक पहुँचाऊँ कि श्री श्री क्या हैं ? आर्ट ऑफ़ लिविंग क्या है ? मैंने रेणुजी से अपने मन की बात कही और बताया कि मैं श्री श्री के बारे में हिंदी में कुछ लिखना चाहता हूँ। बताना चाहता हूँ कि दुनिया में बड़े पैमाने पर बदलाव की बयार बह रही है, दिव्य समाज निर्माण का अभियान विश्व स्तर पर चल रहा है, तभी तो हर उम्र, वर्ग के लोग इस उत्सव में शामिल हुए। उन्होंने कहा, ‘बहुत बढ़िया। मैं आश्रम में बात करूँगी।’ रेणुजी ने दिल्ली विश्वविद्यालय में अँग्रेजी के प्रोफ़ेसर संजीव कक्कड़ से बात की। उन्होंने बिंदिया जैन का नंबर देकर उनसे बात करने को कहा। इस तरह श्री श्री से ऋषिकेश में मिलना तय हुआ। श्री श्री से मुलाक़ात का समय नज़दीक आते-आते मुझे बुखार ने आ घेरा। मैं थका-माँदा और लगभग बुखार में ही ऋषिकेश पहुँचा। वहाँ श्री श्री से मेरी मुलाक़ात हुई। उनसे मेरी यह पहली मुलाक़ात थी लेकिन लगा जैसे कुछ ठहर सा गया है और उससे भी ज़्यादा ऐसा कुछ है, जो मैं भूल गया हूँ। मैंने उनसे कहा, ‘मैं आप पर लिखना चाहता हूँ, जीकर और अनुभव करके।’ उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ‘तो लिखो।’ मैंने कहा, ‘लेकिन इसके लिए मुझे नौकरी छोड़नी होगी’ जवाब मिला, ‘नौकरी क्यों छोड़ोगे, नौकरी में रहते हुए लिखो।’ मैंने पूछा, ‘लेकिन छह महीने या साल भर की लंबी छुट्टी एक पत्रकार को कौन संस्थान देगा ?’ श्री श्री मंद-मंद मुस्कराते रहे। फिर बोले, ‘सब हो जाएगा।’ मैं चुप हो गया। अब विदा लेने की बारी थी। मैंने उनसे आशीर्वाद की प्रार्थना की। उन्होंने अपना हाथ मेरे सिर पर रख दिया। मेरी आँखें बंद हो गईं। फिर उन्होंने प्रसाद दिया। श्री श्री ने बिंदिया जैन से कहा, ‘इसे प्रसन्न प्रभु का नंबर दे दो। जो भी ज़रूरतें हों, वे मदद करें।’
ऋषिकेश में शीशे की तरह बहती पवित्र गंगा किनारे स्थित उस कुटीर से बाहर निकला। मेरे सिर के बाईं ओर सनसनाहट-सी होने लगी, एकदम ठंडापन महसूस हुआ। मुझे लगा कि ठंड या अलसुबह गंगा में नहाने की वजह से ऐसा हुआ होगा। यह सनसनाहट दिल्ली तक मेरे साथ-साथ आई। ऋषिकेश से बस से दिल्ली पहुँचकर मैंने अन्नाजी को फ़ोन मिलाया। वे युवा संन्यासी हैं, जो डॉक्टरी छोड़ एकांत साधना करते हैं। उन्होंने कहा कि यह सनसनाहट पॉवर ट्राँसमिशन है। इसे शक्तिपात भी कहते हैं। यह सनसनाहट और ठंड उदयपुर तक मेरा पीछा करती रही। रास्ते में ही स्टेट हेड का मोबाइल आया, आते ही मुझसे जयपुर में मिलें।’ मुझे लगा, जरूर बेंगलूर की रिपोर्टिंग में कोई गड़बड़ी हुई होगी, मैं चिंता में पड़ गया। ख़ैर, उदयपुर होते हुए जयपुर पहुँचा। वहाँ स्टेट हेड ने कहा, ‘आपकी पदोन्नति की जा रही है। आप भीलवाड़ा, दैनिक भास्कर सँभालें।’ मैंने उन्हें बताया कि पत्नी का पैर टूटा है, अभी नहीं जा सकता। वे बोले, ‘ठीक है, मार्च में चले जाइएगा।’ इस तरह मैं उदयपुर से भीलवाड़ा चला गया। वहाँ जाकर मैंने मई में स्टेट हेड को जयपुर फिर पत्र लिखा कि श्री श्री रवि शंकर पर शोध पर पुस्तक लिखना चाहता हूँ। मुझे अवकाश दिया जाए। उन्होंने कहा, ‘पूरा प्रोजेक्ट बनाकर भेजें।’ मैंने उन्हें प्रोजेक्ट बनाकर भेजा। मैं समझ सकता था। पत्रकारिता में जहाँ हफ़्ते भर की छुट्टी में परेशानी होती है, यह मुमकिन नहीं था कि कोई किताब लिखने के लिए लंबी छुट्टी दे। ख़ैर, मैं अपने फ़ैसले पर अडिग था। चाहे जो हो, यह शोध तो मैं करूँगा ही, पुस्तक लिखकर ही रहूँगा। सभी मित्र-शुभचिंतक परेशान थे कि कैसे काम चलेगा ? मैंने पत्नी से कहा, ‘तुम किसी तरह साल भर मायके में रहो।’ वह तैयार हो गई, पर मुझे लेकर चिंतित थी, ‘बग़ैर पैसे के आप कैसे यात्रा करेंगे ? कहाँ ठहरेंगे ? क्या खाएँगे ?’ हारकर एक दिन मेरे मुँह से निकल गया, ‘भीख माँगूँगा, पर लिखूँगा ज़रूर।’ यह सुनकर मेरी अबोध बेटी मज़ाक़ में मुझसे पूछती थी, ‘पापा, आप भीख कैसे माँगेंगे ?’
इसी बीच जयपुर कार्यालय से मेरी जगह राजेश रवि आ गए। उन्हें मैं कार्यभार सौंपने की तैयारी करने लगा। तभी जयपुर कार्यालय से श्याम शर्मा का फ़ोन आया, ‘अहा ज़िंदगी का वैकल्पिक ज्योतिष विषय पर अंक निकलने जा रहा है। भीलवाड़ा के पास कारोई में भृगु संहिता है। वहाँ चले जाएँ और स्टोरी कर दें।’ मैं गया। पंडितजी से बातचीत के अंत में मैंने पूछा, ‘ज़रा मेरे बारे में कुछ बताइए।’ वे बताने लगे। उनके इस ख़ुलासे से मेरे कान खड़े हो गए कि अगले साल आप एक किताब लिखेंगे। मैं अचरज में पड़ गया कि ये कैसे जानते हैं। दैनिक भास्कर के उच्च प्रबंधन, मेरे कुछ मित्रों-रिश्तेदारों के अलावा किसी को दूर-दूर तक इसकी कानोकान ख़बर नहीं थी। इन्हें कैसे पता ? मैंने उनसे पूछा कि एक बार फिर देखकर बताएँ। वृद्ध पंडितजी ने कहा, ‘भृगु संहिता में यही लिखा है।’ जब मैंने स्टोरी भेजी, तो अहा ज़िंदगी के प्रधान सम्पादक श्री यशवन्त व्यास को लगा कि मैं कुछ बढ़ा-चढ़ाकर लिख गया हूँ। श्यामजी का फ़ोन आया, ‘व्यासजी स्वयं कारोई जाना चाहते हैं। आप पंडितजी से समय ले लें। मैं भी साथ में रहूँगा।’ नियत समय पर हम तीनों कारोई गए। बाद में वह लेख अहा ज़िंदगी के अगस्त, 2006 के अंक में छपा। कारोई से लौटते समय श्यामजी और व्यासजी गाड़ी में चर्चा कर रहे थे कि किताब लिखने की बात आख़िर भृगु संहिता में कैसे है। मैंने उन्हें बताया कि इसके पहले तमिलनाडु के तँजौर जिले के बैदईश्वरन कोईल निवासी महाशिव सूक्ष्म नाड़ी ज्योतिषी श्रीअरुलमुत्तू कुमारस्वामी ने भी ताड़पत्र देखकर कहा था कि आप एक पुस्तक लिखेंगे। वह काफ़ी चर्चित होगी। मुझे उनसे बिहार कांग्रेस के नेता अनिल शर्मा ने मिलवाया था। मैंने उन्हें वह कैसेट भी सुनवाया, जिसमें पुस्तक लेखन का विषय तक निर्धारित था।
मैंने आश्रम के प्रसन्न प्रभु को ई-मेल भेजकर बताया कि मेरा क्या होगा ? मैं एक अगस्त से शोध-अध्ययन के लिए आश्रम आ रहा हूँ। उनका जवाब आया, ‘जो गुरूजी ने कहा है, वही होगा। आप निश्चिंत रहें।’ मैं दुविधा में पड़ गया। भारी ऊहापोह के दिन थे। एक सुबह मैं काफ़ी तनाव में था। तभी दैनिक भास्कर, उदयपुर के कार्यकारी संपादक श्री कीर्ति राणा का फ़ोन आया, ‘बंधुवर, क्यों परेशान हैं ?’ मुझे अचरज हुआ कि इन्हें मेरी परेशानी कैसे पता ? उन्होंने कहा, ‘अभी मैं ध्यान से उठा तो मुझे लगा आप काफ़ी परेशान हैं। जब जा ही रहे हैं, तो मैनेजिंग डायरेक्टर श्री सुधीर अग्रवाल को एक धन्यवाद पत्र भेज दें।’ मैंने उनकी बात मान ली, लेकिन असमंजस में उस दिन धन्यवाद पत्र नहीं भेज सका। हरिवंशजी (प्रधान संपादक, प्रभात ख़बर), मैनेजर साहब विजय बाबू, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक डॉ. बीरेंद्र नारायण यादव ने कहा कि आप काम करें, हम आपके साथ हैं, मिथिलेश भैया ने तो यहाँ तक कहा कि परिवार को मेरे पास छोड़ जाओ। पप्पू भैया ने कहा कि राँची छोड़ जाओ। इन सबसे मुझे नैतिक साहस मिला और संबल भी। जुलाई 2006 के अंतिम सप्ताह में मैंने एमडी श्री सुधीर अग्रवाल को धन्यवाद पत्र लिखा। उसका मजमून कुछ इस तरह था–आपके साथ काम करके मैंने बहुत कुछ सीखा। इसके लिए धन्यवाद। मैं श्री श्री रवि शंकर पर शोध–अध्यनार्थ एक अगस्त से छुट्टी चाहता हूँ। मैं यह चिट्ठी ई-मेल करके घर आया। कुछ समय बाद मुझसे पूरी परियोजना की जानकारी एमडी सचिवालय मुंबई से अनिल गुप्ता ने माँगी।
भाई बलदेवजी के साथ राजसमंद के हनुमान बाबा और श्रीनाथजी का दर्शन किया। लगे हाथ मैंने अजमेर शरीफ़ की ज़ियारत का भी मन बना लिया। मन में संशय था कि पता नहीं अब राजस्थान फिर आना हो भी या नहीं। उर्स का महीना था। भारी भीड़। ग़रीब नवाज़ की चौखट पर मत्था टेककर सीढ़ी से उतर ही रहा था कि एमडी सचिवालय भोपाल से ऐश्वर्या अय्यर व आशीष ममगाई ने सूचना दी कि आपका प्रोजेक्ट मंजूर कर लिया गया है। अगले दिन ऑफ़िस जाकर ई-मेल खोला। मुझे संसाधनों सहित सवैतनिक छुट्टी मिल गई थी। सावन पूर्णिमा के दिन एमडी सुधीर अग्रवाल से भोपाल में मिला। उन्होंने शोध-अध्ययन व लेखन संबंधी दिशा-निर्देश दिए और बहुमूल्य सुझाव भी।
पहली बार मुझे लगा कि दूसरे अख़बारों और दैनिक भास्कर में क्या फ़र्क़ है। यह भी कि भारत में सबसे तेज़ी से उसके बढ़ने की वस्तुगत स्थितियाँ क्या हैं। क्यों उसका परचम लहरा रहा है और क्यों कुंडली जमाए बरगद एक-एक कर उसके आगे धराशायी हो रहे हैं। ई-मेल से भेजे मामूली से धन्यवाद पत्र को इतने बड़े प्रकाशन समूह का मालिक कैसे ताड़ गया ? कैसे उसे लगा कि इस जलतरंग को भीतर-बाहर, हर ओर बजना चाहिए ? बड़प्पन इसे कहते हैं। उदारता व महानता के लिए मैं दैनिक भास्कर प्रबंधन का कोटिशः कृतज्ञ हूँ। ख़ासकर भास्कर समूह के मैनेजिंग डायरेक्टर श्री सुधीर अग्रवाल का, क्योंकि उनमें समाज के प्रति पत्रकारिता के उत्तरदायित्व की दूरदृष्टि है। संभवतः भारत की पत्रकारिता का यह अपनी तरह का इकलौता प्रोजेक्ट है। आज बाज़ारीकरण के दौर में हर चीज़ परिणामोन्मुखी व लाभ आधारित उत्पाद के तौर पर देखी जा रही है। कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता है। ऐसे में कोई अख़बार अपने संपादकीय प्रभारी को किसी ऐसे शोध-लेखन के लिए संसाधनों सहित सवैतनिक छुट्टी दे, जिससे संस्थान का दूर-दूर तक कोई हित जुड़ा नहीं हो, ऐसी मिसाल बिरले ही मिलती है। यह उपकार तब और भी क़ाबिलेतारीफ़ हो जाता है, जब संस्थान ऐसे व्यक्ति की मदद करे जो उस काम के लिए नौसिखुलआ-अनुभवहीन हो।
दैनिक भास्कर के समूह संपादक श्री श्रवण गर्ग ने भी मुझे शुभकामनाएँ दीं। कई पत्रकार मित्र यह जानकर हैरान थे कि मैं सवैतनिक अवकाश पर हूँ। कई ने कहा कि भास्कर का यह निर्णय ऐतिहासिक है। मेरे कई साथी कहते, ‘आख़िर श्री श्री ने क्या जादू कर दिया कि दीवाने बन गए हो ?’ मुझे जो कुछ मिला, उसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता। कुछ को शक था कि इसके लिए का़फी रुपए मिले होंगे आर्ट ऑफ़ लिविंग से। हो भी क्यों नहीं। मुझे अच्छी तरह याद है, मैं पटना में एक प्रवचनकर्ता बाबा का साक्षात्कार लेने गया था। वे नियमित रूप से टीवी पर दिखते हैं। देश दुनिया में उनके नाम का डंका बजता है। मुझे सामने पाकर उन्होंने यह कहते हुए अफ़सोस जताया कि अरे हमने तो आपके नाम पर दूसरे सज्जन को सोने-चाँदी के उपहार दे दिए। फिर उन्होंने नोटों की गड्डियाँ मेरे सामने रख दी थीं।
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